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अप॑श्यं गो॒पामनि॑पद्यमान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्। स स॒ध्रीची॒: स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apaśyaṁ gopām anipadyamānam ā ca parā ca pathibhiś carantam | sa sadhrīcīḥ sa viṣūcīr vasāna ā varīvarti bhuvaneṣv antaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप॑श्यम्। गो॒पाम्। अनि॑ऽपद्यमानम्। आ। च॒। परा॑। च॒। प॒थिऽभिः॑। चर॑न्तम्। सः। स॒ध्रीचीः॑। सः। विषू॑चीः। वसा॑नः। आ। व॒री॒व॒र्ति॒। भुव॑नेषु। अ॒न्तरिति॑ ॥ १.१६४.३१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:31 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:31


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (गोपाम्) सबकी रक्षा करने (अनिपद्यमानम्) मन आदि इन्द्रियों को न प्राप्त होने और (पथिभिः) मार्गों से (आ, च) आगे और (परा, च) पीछे (चरन्तम्) प्राप्त होनेवाले परमात्मा वा विचरते हुए जीव को (अपश्यम्) देखता हूँ (सः) वह जीवात्मा (सध्रीचीः) साथ प्राप्त होती हुई गतियों को (सः) वह जीव और (विषूचीः) नाना प्रकार की कर्मानुसार गतियों को (वसानः) ढाँपता हुआ (भुवनेषु) लोकलोकान्तरों के (अन्तः) बीच (आ, वरीवर्त्ति) निरन्तर अच्छे प्रकार वर्त्तमान है ॥ ३१ ॥
भावार्थभाषाः - सबके देखनेवाले परमेश्वर के देखने को जीव समर्थ नहीं और परमेश्वर सबको यथार्थ भाव से देखता है। जैसे वस्त्रों आदि से ढंपा हुआ पदार्थ नहीं देखा जाता वैसे जीव भी सूक्ष्म होने से नहीं देखा जाता। ये जीव कर्मगति से सब लोकों में भ्रमते हैं। इनके भीतर-बाहर परमात्मा स्थित हुआ पापपुण्य के फल देनेरूप न्याय से सबको सर्वत्र जन्म देता है ॥ ३१ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

अहं गोपामनिपद्यमानं पथिभिरा च परा च चरन्तमपश्यं स सध्रीचीः स विषूचीर्वसानो भुवनेष्वन्तरावरीवर्त्ति ॥ ३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अपश्यम्) पश्येयम् (गोपाम्) सर्वरक्षकम् (अनिपद्यमानम्) यो मन आदीनीन्द्रियाणि न निपद्यते प्राप्नोति तम् (आ) (च) (परा) (च) (पथिभिः) मार्गैः (चरन्तम्) (सः) (सध्रीचीः) सह गच्छन्तीः (सः) (विषूचीः) विविधा गतीः (वसानः) आच्छादयन् (आ) (वरीवर्त्ति) भृशमावर्त्तते (भुवनेषु) लोकलोकान्तरेषु (अन्तः) मध्ये ॥ ३१ ॥
भावार्थभाषाः - नहि सर्वस्य द्रष्टारं परमेश्वरं द्रष्टुं जीवाः शक्नुवन्ति परमेश्वरश्च सर्वाणि याथातथ्येन पश्यति। यथा वस्त्रादिभिरावृतः पदार्थो न दृश्यते तथा जीवोऽपि सूक्ष्मत्वान्न दृश्यते। इमे जीवाः कर्मगत्या सर्वेषु लोकेषु भ्रमन्ति। एषामन्तर्बहिश्च परमात्मा स्थितस्सन् पापपुण्यफलदानरूपन्यायेन सर्वान् सर्वत्र जन्मानि ददाति ॥ ३१ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्वांना पाहात असलेल्या परमेश्वराला पाहण्यास जीव समर्थ नाही. परमेश्वर यथार्थ भावाने सर्वांना पाहतो. जसे वस्त्राचे आवरण असल्यास पदार्थ दिसू शकत नाही. तसा जीवही सूक्ष्म असल्यामुळे दिसू शकत नाही. हे जीव कर्मगतीने सर्व लोकात भ्रमण करतात. त्यांच्या आतबाहेर परमात्मा स्थित असून पापपुण्य फळ प्रदाता या न्यायाने सर्वांना जन्म देतो. ॥ ३१ ॥